काका हाथरसी की हास्य कविता
काका हाथरसी (पद्मश्री प्रभुलाल गर्ग)जन्म: 18 सितंबर 1906 :: निधन: 18 सितंबर 1995
पद्मश्री काका हाथरसी का जन्म बरफ़ी देवी और शिवलाल गर्ग के यहाँ हाथरस में हुआ था। जब वे मात्र 14 दिन के थे प्लेग की महामारी ने उनके पिता को छीन लिया और परिवार के दुर्दिन आरम्भ हो गये। भयंकर गरीबी में भी काका ने अपना संघर्ष जारी रखते हुए छोटी-मोटी नौकरियों के साथ ही कविता रचना और संगीत शिक्षा का समंवय बनाये रखा। उन्होने हास्य कविताओं के साथ-साथ संगीत पर पुस्तकें भी लिखीं और संगीत पर एक मासिक पत्रिका का सम्पादन भी किया। काका के कारतूस और काका की फुलझडियाँ जैसे स्तम्भों के द्वारा अपने पाठकों के प्रश्नों के उत्तर देते हुए वे अपनी सामाजिक ज़िम्मेदारियों के प्रति भी सचेत रहते थे। उनकी प्रथम प्रकाशित रचना 1933 में "गुलदस्ता" मासिक पत्रिका में उनके वास्तविक नाम से छपी थी।
शिव का धनुष (हास्य कविता: काका हाथरसी)
विद्यालय में आ गए इंस्पेक्टर इस्कूल
छठी क्लास में पढ़ रहा विद्यार्थी हरफूल
विद्यार्थी हरफूल, प्रश्न उससे कर बैठे
किसने तोड़ा शिव का धनुष बताओ बेटे
छात्र सिटपिटा गया बेचारा, धीरज छोड़ा
हाथ जोड़कर बोला, सर, मैंने न तोड़ा
उत्तर सुनकर आ गया, सर के सर को ताव
फौरन बुलवाए गए हेड्डमास्टर सा'ब
हेड्डमास्टर सा'ब, पढ़ाते हो क्या इनको
किसने तोड़ा धनुष नहीं मालूम है जिनको
हेडमास्टर भन्नाया, फिर तोड़ा किसने
झूठ बोलता है, ज़रूर तोड़ा है इसने
इंस्पेक्टर अब क्या कहे, मन ही मन मुस्कात
ऑफिस में आकर हुई, मैनेजर से बात
मैनेजर से बात, छात्र में जितनी भी है
उससे दुगुनी बुद्धि हेडमास्टर जी की है
मैनेजर बोला, जी हम चन्दा कर लेंगे
नया धनुष उससे भी अच्छा बनवा देंगे
शिक्षा-मंत्री तक गए जब उनके जज़्बात
माननीय गदगद हुए, बहुत खुशी की बात
बहुत खुशी की बात, धन्य हैं ऐसे बच्चे
अध्यापक, मैनेजर भी हैं कितने सच्चे
कह दो उनसे, चन्दा कुछ ज़्यादा कर लेना
जो बैलेन्स बचे वह हमको भिजवा देना
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[विडियो अल्ट्राहिन्दी से साभार :: Video Courtesy UltraHindi]
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4 टिप्पणियां:
ऐसा कवि कभी कभार पैदा होता है।
कहां गये काका तुम्हारी याद सताती है। आज अगर तुम होते तो बहुते बीजी न हो जाते कविताई में या सर पकड़ कर बैठ जाते...हंसे कि रोएं। साल 33 में जो तुमने शिक्षा पर कविता लिखी उससे काफी आगे निकल चुकी है व्यवस्था।
बहुत सुन्दर --
प्रस्तुति ||
बधाई |
काकी पर चलते रहे, काका की शमशीर |
बेलन से पिटते रहे, खाई फिर भी खीर |
खाई फिर भी खीर, तीर काकी के आकर|
बने कलम के वीर, धरा पूरी महका कर |
PAR रविकर इक बात, रही बाँकी की बाकी |
मिली कहाँ से तात, आपको ऐसी काकी ||
काकी पर चलते रहे, काका की शमशीर |
बेलन से पिटते रहे, खाई फिर भी खीर |
खाई फिर भी खीर, तीर काकी के आकर|
बने कलम के वीर, धरा पूरी महका कर |
पर रविकर इक बात, रही बाँकी की बाकी |
मिली कहाँ से तात, आपको ऐसी काकी ||
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