कूंचे को तेरे छोड़ कर, जोगी ही बन जाएँ मगर!
जंगल तेरे, परबत तेरे, बस्ती तेरी, इंशा तेरा ॥
कवि इब्न ए इंशा के जन्मदिन पर उनकी एक मर्मस्पर्शी कविता का एक अंश
- अम्मार अली खाँ के स्वर में
हम रात बहुत रोये, बहुत आहो-फ़ुग़ाँ की
दिल दर्द से बोझिल हो तो फिर नींद कहाँ की
अल्लाह करे मीर का जन्नत में मकाँ हो
मरहूम ने हर बात हमारी ही बयाँ की
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सम्बंधित कड़ियाँ
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* सब माया है - सलमान अलवी
* इब्न ए इंशा के जन्मदिन पर - पिट औडियो
* कल चौदहवीं की रात थी - जगजीत सिंह
* यह बच्चा कैसा बच्चा है
* इब्न-ए-इंशा - कविता कोश
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3 टिप्पणियां:
जंगल तेरे, परबत तेरे, बस्ती तेरी, इंशा तेरा ॥ मस्त-मस्त गीतों की ये श्रृंखला ||
आभार ||
बेहतरीन प्रस्तुति। आभार
बहुत ख़ूबसूरत प्रस्तुति..
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